पोल्ट्री में वायरल बीमारियों के प्रकोप की अंतहीन गाथा
वायरल बिमारिया पोल्ट्री फार्मिंग में भारी आर्थिक नुकसान के लिए ज़िम्मेदार होती है और उनका कोई संतोषजनक समाधान नहीं है
भारत में कोई भी पोल्ट्री फार्म वायरल इन्फेक्शन से अछूता नहीं है| इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता की आप कितनी अच्छी बायोसिक्यूरिटी अपने फार्म में लागू करते हैं, वायरल बीमारियाँ किसी शातिर चोर की तरह हमेशा खिड़की से झांकती रहती हैं जो मौका मिलने पर घर का कीमती सामान उड़ा ले जाता है| यहाँ पोल्ट्री फार्म के विषय में पोल्ट्री पक्षियों की कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) वो खिड़की है जिससे वायरस फार्म में प्रवेश करके फार्म के भीतर तबाही मचाते हैं|
कई सारे वायरस जैसे अडिनो वायरस, गम्बोरो वायरस, आई बी वायरस महीनो तक शेड में पड़े रहते हैं| कई केसेस में जिन फ्लॉक में वेक्सिनेशन किया जा चुका होता है, वो पक्षी भी बिना लक्षण दर्शाए वायरस को लिए रहते हैं और जब इम्युनिटी कमज़ोर होती है तो बीमारी को फैलाते हैं| तो मोटे तौर पर अधिकतर फार्म वायरस के प्रकोप के लिए संवेदनशील रहते हैं और उनके द्वारा किये जाने वाले नुकसान के दायरे में बने रहते हैं|
आम तौर पर वायरल बीमारी के दौरान पानी साफ करने वाले सेनीटाईज़र या डिसइन्फेक्टेंट वायरल बीमारियों में चलाये जाते हैं, जिन्हें पीने के पानी में दिया जाता है| यह तरकीब बीमारी रोकने में बहुत कम कारगर रहती है क्यूंकि इसका सिधांत यह होता है की सेनीटाईज़र वायरस को वातावरण में निष्क्रिय करता है और बीमारी को फैलने से रोकती है परन्तु मुर्गी के शरीर के अन्दर यह सब काम नहीं करते लेकिन जबतक वायरल का पता चलता है तब तक बीमारी तो फार्म में फ़ैल चुकी होती है तभी तो लक्षण दिखते हैं और मोर्टेलिटी होती है|
वायरस द्वारा शरीर के अन्दर पैदा की जाने वाली अतिघातक इम्यून रीएक्शन अंदरूनी अंगो को आघात पहुंचाती हैं जो मुख्य तौर पर मृत्यु का कारण होती है| बीमारियों के विशिष्ट लक्षण और विभिन्न अंगो में घाव बीमारी की पहचान तो करा देते हैं पर मोर्टेलिटी को रोकने में सार्थक सिद्ध नहीं होते| एलोपेथिक वायरल रोधी दवाइयां महंगी होने के कारण इस्तेमाल नहीं की जा सकती|
वायरल बीमारियाँ बड़े अनोखे तरीके से फैलती हैं, कुछ वायरस हवा के ज़रिये एक जगह से दूसरी जगह चले जाते हैं जैसे आई.बी या रानीखेत का वायरस, यह वायरस उन पक्षियों पर सबसे पहले अटैक करते हैं जिनकी इम्युनिटी कमज़ोर होती हैं और उनके अन्दर जाकर रेप्लिकेट करते हैं, और उन्हें बीमार कर देते हैं| रेप्लिकेट होने के बाद वायरस इस पक्षी के शरीर से निकलने वाले स्राव में आ जाता है और जब पक्षी छींकता है या खांसता है तो यह वायरस उस छींक या खांसी की सूक्ष्म बूंदों में घंटो तक हवा में तैरता रहता है और दूसरे पक्षी जो उस हवा में साँस लेते हैं उनमे वायरस पहुँच जाता है|
इसी तरह ऐसा पक्षी जब पानी पीता है तो वो वायरस पानी में चला जाता है और जो दूसरे स्वस्थ पक्षी उस पानी को पीते हैं तो वो भी इन्फेक्टेड हो जाते हैं| वायरस का इस तरह से फैलना, यह सब इन्फेक्शन की शुरुआत में महत्वपूर्ण होता है लेकिन जब अच्छी खासी संख्या में मुर्गियों के अन्दर जब वायरस पहुँच जाता है तो फिर यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं रहती|
मैंने अक्सर देखा है की आई.बी या इन्फ़्लुएन्ज़ा के वायरस को 5000 मुर्गियों के पूरे फ्लॉक में फैलने में पांच से सात दिन का समय लगता है और आम तौर से जब वायरस फैल रहा होता है उस समय मुर्गी में कोई अधिक लक्षण नहीं दिखाई देते और आवाज़ में घरघराहट के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं होता|
मोर्टेलिटी न होने के कारण फार्मर अधिक ध्यान भी नहीं देता पर धीरे धीरे यदि वातावरण ठीक न हो, पानी में इ.कलाई हो, और इम्युनिटी कमज़ोर पड़ जाये तो तुरंत वायरल आउटब्रेक के रूप में फैल जाता है| उस समय सेनीटाईज़र या डिसइन्फेक्टेंट किसी काम के नहीं रहते क्यूंकि सेनीटाईज़र या डिसइन्फेक्टेंट सिर्फ पानी के अन्दर या वातावरण में वायरस को मारते हैं और मुर्गी के अन्दर कोई काम नहीं करते बल्कि अगर अधिक मात्रा में दे दिए जाये तो ज़हर का काम करते हैं और टोक्सीसिटी कर देते हैं|
ऐसे में फार्मर के लिए ये आंकलन करना बहुत मुश्किल हो जाता है के मोर्टेलिटी वायरस से हो रही है या सेनीटाईज़र या डिसइन्फेक्टेंट की डोज़ अधिक होने से क्यूंकि फार्मर को जब सेनीटाईज़र की नार्मल डोज़ से रिजल्ट नहीं मिलता तो वह कभी कभार सेनीटाईज़र या डिसइन्फेक्टेंट की डोज़ बढ़ा देते हैं और टोक्सीसिटी हो जाती है|
सेनीटाईज़र या एंटीबायोटिक वायरल में मुर्गी के अन्दर जा कर काम क्यों नहीं कर पाते? मार्किट में मिलने वाले सेनीटाईज़र कई तरह के होते हैं – जैसा की हम जानते हैं की वायरस कोशिकाओं के अन्दर रहते और विभाजन करते हैं इसलिए एंटीबायोटिक्स का वायरल बिमारियों में कोई ख़ास महत्त्व नहीं है|
ऐसा इसलिए हैं क्यूंकि एंटीबायोटिक्स कोशिका के अन्दर नहीं घुस पाती और जो चली भी जाती हैं उनका वायरस पर कोई असर नहीं होता और वो वायरस को मार नही पाती| दूसरी ओर अधिकतर बैक्टीरिया कोशिकाओं के बहार रहते हैं इसलिए एंटीबायोटिक्स को आसानी से बक्टिरियल रोगों में इस्तेमाल किया जाता है| ऐसा ही सेनीटाईज़र के साथ होता है की वो कोशिकाओं तक या तो पहुँच नहीं पाता या अगर पहुँचता है तो वायरस के साथ साथ पक्षी की नार्मल कोशिकाओं को भी आघात पहुंचाता है|
लेकिन कभी कभार वायरल बिमारियों में इम्युनिटी कमज़ोर होने के कारण बैक्टीरिया का संक्रमण भी हो जाता है जिसके लिए एंटीबायोटिक दी जाती है ये ज़रूरी नहीं होता की एंटीबायोटिक से हमेशा लाभ ही मिले कभी फायदा हो जाता है और अगर ठीक एंटीबायोटिक का इस्तेमाल नहीं किया जाता तो मोर्टेलिटी और बढ़ जाती है|
जैसे कभी कभी आई.बी या एडिनोवायरस या ग्मबोरो के केस में होता है जिसमे वायरस किडनी को डैमेज करते हैं और कुछ एंटीबायोटिक किडनी के लिए टॉक्सिक भी होती हैं जैसे कोलिसटिन सलफेट या नियोमायिसिन| जब एंटीबायोटिक वायरल में लगायी जाती हैं तो मोर्टेलिटी तुरंत बढ़ जाती हैं|
इसीलिए वायरल आउटब्रेअक्स में फार्मर हज़ारों रूपए दवाइयों में खर्च कर के भी मूक सा खड़ा रहता है और अपना नुकसान देखता रहता है|
मार्किट में मिलने वाली कोई दवाई ऐसी नहीं है जो वायरल बिमारियों पे सीधा असर कर के मोर्टेलिटी रोक दे, सब दवायी अंदाज़े से इस्तेमाल की जाती हैं और कुछ वायरस सेल्फ लिमिटिंग होते हैं और कुछ दिन के कोर्स के बाद खुद ही धीमे पड़ जाते हैं पर ऐसा कम ही होता है, तो बिना बीमरी जाने दवाइयां इस्तेमाल करना कुछ फायदा ते देता नहीं उलटे नुक्सान के खतरे और बढ़ जाते हैं|
यहाँ ये बात समझनी अत्यधिक आवश्यक है की वायरस पक्षी की सैल (कोशिका) की एक तरीके से हाई जैक कर लेता है और उसे अपने अनुरूप इस्तेमाल करता है, ऐसी कोशिकाओं को मरना ज़रूरी हो जाता है|
जिनमे ये वायरस अपनी संख्या को बढ़ा रहा होता है लेकिन बहार से ऐसी कोई दवाई नहीं है जो इन कोशिकाओं को ढूंड के उन्हें मार दे ये काम सिर्क पक्षी इम्यून सैल करती हैं मतलब सिर्फ इम्यून सिस्टम ही वायरस से पक्षी की जान को बचा सकता है|
इम्यून सिस्टम यह काम दो तरह से करता है एक तो वो सामान्य रेस्पोंस उत्तपन करता है जैसे बुखार या सूजन या अधिक खून के बहाव से पैदा होने वाली लाली ये प्राइमरी इम्यून रेस्पोंस कहलाते हैं परन्तु जटिल आउटब्रेअक्स में इनका अधिक महत्त्व नहीं होता दूसरा होता है सेकेंडरी इम्यून सिस्टम जो बी और टी सैल से बनता है वो ही वायरस को पहचान कर उसे निष्क्रिय कर देती हैं या मार देती हैं|
बी सैल एंटीबाडी बनाती है जो की वायरस से चिपक कर उसे बेकार कर देती हैं लेकिन बी सैल जब तक एंटीबाडी नहीं बनाती जब तक टी हेल्पर सैल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हों तब तक बी सैल एंटीबाडी नहीं बना पाती और ये टी हेल्पर सैल ब्रायलर पक्षियों में लेयर या देसी मुर्गी के मुकाबले में कम होती हैं इन्हें बनाये रखने के लिए एंटीऑक्सीडेंट और इम्मुनो स्टीमुलेंट की आवश्यकता होती हैं कई तरह के एंटीऑक्सीडेंट टी सैल में काम करते हैं जैसे टोकोफेरोल, केल्सिफेरोल, ग्लुटाथियोन आदि यह टी सैल के लेवल को बना कर रखने में मदद करते हैं और वायरल आउटब्रेअक्स में यही सैल कम हो जाती हैं जिसकी वजह से मोर्टेलिटी बढ़ जाती है|
कई हर्बल एक्सट्रेक्ट ऐसे हैं जो वायरस के रेप्लिकेशन को सैल के भीतर रोक कर उसे बढ़ने नहीं देते, जैसे शिमला मिर्च में यह देखा गया है की वो रानीखेत वायरस के मुकाबले में बहुत अच्छा काम करती है या फिर शेलट जो एक प्रकार की अंग्रेजी प्याज़ होती है वो एडिनोवायरस के विरुद्ध अच्छा काम करती है|
इसी तरह ऊपर दिए गए दो तरह के तत्वों के सही इस्तेमाल से वायरल आउट ब्रेअक्स में अच्छा रेस्पोंस हांसिल किया जा सकता है|