ओवीसिंच प्रोटोकॉल (ovsynch protocol) को इस्तेमाल होते हुए लगभग 25 साल हो गए हैं तब से लेकर अब तक इस प्रोटोकॉल को 1100 से अधिक वैज्ञानिक जर्नलओं में छापा जा चुका है| यह डेयरी पशुओं को हीट में लाने के लिए काफी प्रचलित और सफल प्रोटोकॉल मानी जाती है| परंतु पहली बार से लेकर और अब तक ओवीसिंच प्रोटोकॉल में कई तरीके के बदलाव भी देखने को मिले हैं| ओवीसिंच (ovsynch) से पहले पशु को हीट में लाने के लिए प्रोस्टाग्लैंडइन एफ 2 अल्फा (Prostaglandin F2 Alpha / pgf2 alpha) का इस्तेमाल होता था जो कि कॉरपस लुटियम (Corpus Luteum) का रिग्रेशन करता है| जो भी समय प्रोस्टाग्लैंडइन लगाने के बाद से इसट्रस् (estrus) के बीच में लगता था वह इस बात पर निर्भर करता था की ओवरी (ovary) में जो फॉलिकल (follicle) बड़ा हो रहा है वह किस स्टेज पर है और यह समय 2 से 6 दिन का होता था यदि यह फॉलिकल अपनी शुरुआती अवस्था में होता था तो पशु का इसट्रस् में आने का समय बढ़ जाता था| तो इसका लब्बोलुआब यह था कि पशुओं में ओवुलेशन (ovulation) pgf2a लगाने के लगभग 4 दिन बाद होता था और यदि दो इंजेक्शन लगाए गए हैं तो दो ओवुलेशन 10 से 14 दिन के अंतराल पर होते थे इसमें दुविधा यह थी कि यह 4 दिन का समय आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन के लिए सही वक्त नहीं बता पाता था जिससे ए.आई अक्सर नाकाम हो जाती थी क्योंकि एआई एक सीमित समय में होनी जरूरी है| दूसरी ओर प्रोस्टाग्लैंडइन से इसट्रस् सिंक्रोनाइजेशन तभी मुमकिन था जब पशु का प्रजनन चक्र इसट्रस् साइकिल सही हो जबकि 25% से अधिक गाय बच्चा देने के 50 दिन बाद भी इसट्रस् साइकिल के कोई लक्षण नहीं दिखाती|
तो वैज्ञानिकों की रुचि इस बात में बढ़ने लगी कि यदि बढ़ती हुई फॉलिकल्स और कार्पस लुटियम के डेवलपमेंट को मैनिपुलेट किया जाए तो कार्पस लुटियम के रिग्रेशन को कंट्रोल किया जा सकता है और दूसरी नई डोमिनेंट फॉलिकल का ओवुलेशन कराया जा सकता है| सबसे पहला उद्देश्य वैज्ञानिकों का यह था की दूध देने वाले पशुओं में इनफर्टिलिटी की रोकथाम हो सके जिसकी एक मुख्य वजह यह होती थी कि एक डोमिनेंट फॉलिकल ओवरी में ओवुलेशन के लिए एक लंबा इंतजार करती थी| कई सारी रिसर्चओं में यह भी पता चला की उन पशुओं की फर्टिलिटी काफी कम हो जाती थी जिनमें डोमिनेंट फॉलिकल बना रहता था और ओवूलेट नहीं कर पाता था इसके अलावा यह भी देखने को मिला की हीफर और वयस्क गाय के अंदर फॉलिकुलर वेव डायनामिक्स भिन्न रहती है| वयस्क डेयरी पशुओं में ओवूलेट्री फॉलिकल अधिक समय तक जिंदा रहते हैं ऐसे में फॉलिकल के अंतिम समय को कंट्रोल कर के पशुओं में फर्टिलिटी को बढ़ाया जा सकता था|
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर कुछ होर्मोनो को एक श्रंखला में पशुओं में इंजेक्ट किया गया जिसका उद्देश्य यह था की ओवूलेट्री फॉलिकल की आयु को कम किया जा सके जिससे फर्टिलिटी बढे और ओवुलेशन के समय को कंट्रोल करके एक विशिष्ट समय में एआई कर सकें| इस तकनीक को ओवीसिंच प्रोटोकॉल कहा गया परंतु बाद में यह देखा गया कि ओवीसिंच पशुओं में फर्टिलिटी पर कोई असर नहीं डाल रहा है, यह सिर्फ ब्याने के बाद से पहली सर्विस होने तक के दिनों को कंट्रोल कर रहा है इसका उपयोग केवल उन पशुओं को हीट में लाने के लिए होने लगा जो बयाने के काफी समय बाद तक भी किसी वजह से हीट में नहीं आ पाते|
इस तकनीक ने अमेरिका और यूरोप में चमत्कारिक रूप से बड़े डेरी फार्म के प्रजनन प्रबंधन को बदल दिया जिससे उनकी ग्याभन होने की दर काफी बढ़ गई उसके बाद से पूरी दुनिया में इस तकनीक को इस्तेमाल किया जाने लगा| ओवीसिंच तकनीक से उस इंतजार को खत्म किया गया जो पशु के ब्याने के बाद से पहली हीट में आने तक के लिए किया जाता था और कई संगठित फार्मो में इस तकनीक ने पशुओं में इसट्रस् पता लगाने की जरूरत को पूरी तरीके से खत्म कर दिया| ओवीसिंच तकनीक की बड़ी सफलता यह थी कि जिन फार्मो में इस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा था वहां अधिकतर पशु 100 दिन के अंदर दोबारा से प्रेग्नेंट हो जाते थे जबकि परंपरागत तरीके से पशुओं को सर्विस के लिए तैयार करने में 5 महीने तक का समय लग जाता था इस तकनीक में मुख्यतः जीएनआरएच (GnRH) और प्रोस्टाग्लैंडइन (Prostaglandin) को एक के बाद एक इस्तेमाल किया जाता है| जिस दिन जीएनआरएच हार्मोन लगाया जाता है उस दिन को 0 दिन माना जाता है, उसके 7 दिन बाद प्रोस्टाग्लैंडइन लगाया जाता है फिर 48 घंटे बाद जीएनआरएच लगाया जाता है और उसके 24 घंटे बाद एआई कर दी जाती है इसमें मुख्य बात यह होती है कि इसट्रस् को देखने की आवश्यकता नहीं होती|